माधवाचार्य ने वेदांत के द्वैत दर्शन का सूत्रपात किया और वे कर्नाटक के उडुपी से संबंधित हैं । वारकरी का अर्थ है एक यात्री, जिसका सपना है कि पंढरपुर तीर्थ जाए ताकि उन विठोबा या विट्ठल के दर्शन कर सके, जो धैर्यपूर्वक अपने भक्तों की प्रतीक्षा करते हैं। वारकरी परंपरा संत ज्ञानदेव (1275-96) से शुरू हुई, जिन्होंने गीता की प्रसिद्ध संस्कृत टीका, ज्ञानेश्वरी लिखी । वे एक ऐसे परिवार से थे जो रूढ़ियों को तोड़ने के कारण समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया था । उनके बाद 13वीं और 18वीं शताब्दी ई. के बीच वारकरी संतों की एक लंबी श्रृंखला आई जिनमें मुक्ताबाई, नामदेव, जनाबाई, एकनाथ और तुकाराम संत गण थे । ज्ञानदेव की तरह वे भी समाज सुधारक, साहित्यिक दिग्गज और आध्यात्मिक नायक हुए । उनमें महिलाएँ और सबसे निचली जातियों के लोग भी शामिल थे। वे बिना भेदभाव सभी की सेवा करते थे । उन्होंने मराठी साहित्य लिखा जिसमें उनकी बेहद व्यक्तिगत और गहरी दार्शनिक भगवद्भक्ति दिखती है । संत जनाबाई ने लिखा है : “मैं भगवान को खाती हूँ, मैं भगवान को पीती हूँ, मैं भगवान पर सोती हूँ। मैं भगवान को खरीदती हूँ, मैं भगवान को गिनती हूँ, मैं भगवान से व्यवहार करती हूँ। शून्य भी भगवान से शून्य नहीं है”
चित्र विकिमीडिया पर उदयकुमार पी आर द्वारा वारकरियों की वार्षिक पंढरपुर यात्रा की छवि है।
माधवाचार्य ने वेदांत के द्वैत दर्शन का सूत्रपात किया और वे कर्नाटक के उडुपी से संबंधित हैं । वारकरी का अर्थ है एक यात्री, जिसका सपना है कि पंढरपुर तीर्थ जाए ताकि उन विठोबा या विट्ठल के दर्शन कर सके, जो धैर्यपूर्वक अपने भक्तों की प्रतीक्षा करते हैं। वारकरी परंपरा संत ज्ञानदेव (1275-96) से शुरू हुई, जिन्होंने गीता की प्रसिद्ध संस्कृत टीका, ज्ञानेश्वरी लिखी । वे एक ऐसे परिवार से थे जो रूढ़ियों को तोड़ने के कारण समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया था । उनके बाद 13वीं और 18वीं शताब्दी ई. के बीच वारकरी संतों की एक लंबी श्रृंखला आई जिनमें मुक्ताबाई, नामदेव, जनाबाई, एकनाथ और तुकाराम संत गण थे । ज्ञानदेव की तरह वे भी समाज सुधारक, साहित्यिक दिग्गज और आध्यात्मिक नायक हुए । उनमें महिलाएँ और सबसे निचली जातियों के लोग भी शामिल थे। वे बिना भेदभाव सभी की सेवा करते थे । उन्होंने मराठी साहित्य लिखा जिसमें उनकी बेहद व्यक्तिगत और गहरी दार्शनिक भगवद्भक्ति दिखती है । संत जनाबाई ने लिखा है : “मैं भगवान को खाती हूँ, मैं भगवान को पीती हूँ, मैं भगवान पर सोती हूँ। मैं भगवान को खरीदती हूँ, मैं भगवान को गिनती हूँ, मैं भगवान से व्यवहार करती हूँ। शून्य भी भगवान से शून्य नहीं है”
चित्र विकिमीडिया पर उदयकुमार पी आर द्वारा वारकरियों की वार्षिक पंढरपुर यात्रा की छवि है।