गर्सिया डी ओरटा ने १५६१ में एक बहुत प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसमें भारतीय वनस्पतियों की औषधीय विषेशताओं, खनिज पदार्थों और भारत में उस समय आम तौर पर होने वाले रोगों का वर्णन था। डी ओरटा के यहूदी परिवार का ईसाई धर्म में जबरन परिवर्तन कराया गया परंतु वे लोग गुप्त रूप से अपने यहूदी धर्म का पालन करने वाले माने जाते थे। पुर्तगाली धर्माधिकरण में इन्हीं परिवर्तित यहूदियों को निशाना बनाया गया। ऐसी परिस्थितियों में वो भाग कर भारत आ गये और पुर्तगाल के वाइसराय की नौकरी में लग गए। बाद मे वह अहमदनगर के सुल्तान के राजकीय चिकित्सक भी बने।
भारत आकर वह प्रसिद्ध हो गये और पुर्तगाल के वाइसराय ने उन्हें १५५३ में तत्कालीन बॉम्बे का एक छोटा सा द्वीप लीज़ पर दे दिया (वर्तमान मुम्बई के 7 द्वीपों में से एक)। परंतु उनके परिवार को और उनको काफी यातनायें भी सहनी पड़ीं। वह अपनी चार दीवारों में ही यहूदी बनकर रहे। उनकी बहन को गोआ में पुर्तगाली धर्माधिकरण के दौरान जीवित जला दिया गया था। १५६८ में उन्हें उनकी मृत्यु के बाद दोषी ठहराया गया और दंड देने हेतु उनके शरीर को कब्र से खोदकर, निकालकर जलाया गया। विडंबना ऐसी कि मृत्यु के काफी समय बीतने के बाद पुर्तगालियों ने उन्हें एक नायक का दर्जा प्रदान किया।
डी ओरटा का संबंध चिकित्सा के ग्रीक – अरब विद्यालय ‘गेलन और एविसेना’ से भी रहा। भारत में उनका संपर्क मुसलमान चिकित्सकों से अधिक रहा हालांकि उनकी पुस्तक में कुछ आयुर्वेद के चिकित्सकों का भी वर्णन है। उनके ग्रंथ से भारत में प्रचलित अन्य चिकित्सा पद्धतियों जैसे कि – यूनानी, के विषय में भी जानकारी मिलती है। यह भारतीय मुसलमान चिकित्सकों द्वारा विकसित किया गया था, जिन्होंने यूनानी-अरबी चिकित्सा प्रणाली को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालने का प्रयास किया था।
चित्र में डी ओरटा की लिस्बन में लगी मूर्ति दिखाई गयी है। उनके हाथ में पकड़ी जड़ी बूटियों की ओर ध्यान अवश्य दें।
जानकारी का स्रोत – जोनाथन गिल हैरिस द्वारा रचित “द फर्स्ट फिरंगीस”
गर्सिया डी ओरटा ने १५६१ में एक बहुत प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसमें भारतीय वनस्पतियों की औषधीय विषेशताओं, खनिज पदार्थों और भारत में उस समय आम तौर पर होने वाले रोगों का वर्णन था। डी ओरटा के यहूदी परिवार का ईसाई धर्म में जबरन परिवर्तन कराया गया परंतु वे लोग गुप्त रूप से अपने यहूदी धर्म का पालन करने वाले माने जाते थे। पुर्तगाली धर्माधिकरण में इन्हीं परिवर्तित यहूदियों को निशाना बनाया गया। ऐसी परिस्थितियों में वो भाग कर भारत आ गये और पुर्तगाल के वाइसराय की नौकरी में लग गए। बाद मे वह अहमदनगर के सुल्तान के राजकीय चिकित्सक भी बने।
भारत आकर वह प्रसिद्ध हो गये और पुर्तगाल के वाइसराय ने उन्हें १५५३ में तत्कालीन बॉम्बे का एक छोटा सा द्वीप लीज़ पर दे दिया (वर्तमान मुम्बई के 7 द्वीपों में से एक)। परंतु उनके परिवार को और उनको काफी यातनायें भी सहनी पड़ीं। वह अपनी चार दीवारों में ही यहूदी बनकर रहे। उनकी बहन को गोआ में पुर्तगाली धर्माधिकरण के दौरान जीवित जला दिया गया था। १५६८ में उन्हें उनकी मृत्यु के बाद दोषी ठहराया गया और दंड देने हेतु उनके शरीर को कब्र से खोदकर, निकालकर जलाया गया। विडंबना ऐसी कि मृत्यु के काफी समय बीतने के बाद पुर्तगालियों ने उन्हें एक नायक का दर्जा प्रदान किया।
डी ओरटा का संबंध चिकित्सा के ग्रीक – अरब विद्यालय ‘गेलन और एविसेना’ से भी रहा। भारत में उनका संपर्क मुसलमान चिकित्सकों से अधिक रहा हालांकि उनकी पुस्तक में कुछ आयुर्वेद के चिकित्सकों का भी वर्णन है। उनके ग्रंथ से भारत में प्रचलित अन्य चिकित्सा पद्धतियों जैसे कि – यूनानी, के विषय में भी जानकारी मिलती है। यह भारतीय मुसलमान चिकित्सकों द्वारा विकसित किया गया था, जिन्होंने यूनानी-अरबी चिकित्सा प्रणाली को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालने का प्रयास किया था।
चित्र में डी ओरटा की लिस्बन में लगी मूर्ति दिखाई गयी है। उनके हाथ में पकड़ी जड़ी बूटियों की ओर ध्यान अवश्य दें।
जानकारी का स्रोत – जोनाथन गिल हैरिस द्वारा रचित “द फर्स्ट फिरंगीस”